Shahid Veer Narayan Singh: अंग्रेजी हुकूमत को ललकारने वाले शहीद वीर नारायण सिंह, ऐसी है इनकी प्रेरक कहानी

Shahid Veer Narayan Singh: अंग्रेजी हुकूमत को ललकारने वाले शहीद वीर नारायण सिंह, ऐसी है इनकी प्रेरक कहानी

(डॉ . बलदेव का लिखा विशेष आलेख)। Shahid Veer Narayan Singh: सन् 1857 की क्रांति राष्ट्रव्यापी थी, इसका प्रभाव क्षेत्र न केवल दिल्ली , लखनऊ , ग्वालियर , मेरठ , नागपुर , इन्दौर , सतारा , झांसी जैसे ठेठ हिन्दी प्रदेश थे अपितु उड़ीसा का संबलपुर और छत्तीसगढ़ का रायपुर और उसके अन्तर्गत सोनाखान भी था।

यह न केवल सैनिक क्रांति, न केवल राजे – महाराजे, जमींदरों का विद्रोह था अपितु किसानों द्वारा की गई क्रांति भी उसमें शामिल थी या यह कहें भारतीय राजे, सैनिक और किसानों ने मिलजुलकर पहली बार बड़े पैमाने पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मोर्चा लिया था। यदि मीर जाफरों ने ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ नहीं दिया होता तो अंग्रेजों को उसी समय भारत छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता। पर नियति को यह सब मंजूर नहीं था , इससे अंग्रेजी हुकूमत पहले से भी ज्यादा संगठित होकर भारत में राज्य करने लगी ।

पूर्व में छत्तीसगढ़ का भू भाग दक्षिण कोशल के नाम से विख्यात था । मध्यकाल में यह रत्नपुर राज्य कहलाता था । जहांगीर नामा के अनुसार रत्नपुर का राजा कल्याण साथ दिल्ली दरवार में छह महीने के लिए नजरकैद था । मराठा युग में इसका नाम छत्तीस गढ़ों के आधार पर छत्तीसगढ़ पड़ा । खैरागढ़ के चारण कवि दलराम राव की रचना जो सन् 1497 की है , में इसका प्रथम बार उल्लेख इस प्रकार हुआ है-

   लक्ष्मी निधि राय सुनौ चित्त दै , गढ़ छत्तीस में न   
                                              गढ़या रही ।
   मरदुमी रही नहिं मरदन के , फेर हिम्मत से न
                                              लड़या रही
   भय भाव भरे सब कांप रहे , भय है नहिं जाय
                                                डरैया रही
   दलराम भनै सरकार सुनौ , नृप को उन ढाल
                                             अड़या रही

        छत्तीसगढ़ का दूसरी बार प्रयोग सन् 1689 में महाकवि गोपाल मिश्र ने अपने खूब तमाशा ” नामक ग्रंथ में इस प्रकार किया है –

     छत्तीसगढ़ गाढ़े जहां बड़े गडोई जानि
     सेवा स्वामिन को रहे , सकै ऐंड को मानि

        विख्यात इतिहास वेत्ता प्यारेलाल गुप्ता के शब्दों में सन् 1689 में छत्तीसगढ़ का अधिक प्रचलन हो गया था । इसके 150 वर्ष बाद रतनपुर में छत्तीसगढ़ का स्पष्ट प्रयोग रेवाराम बाबू कृत विक्रम विलास में इस प्रकार किया गया है –

   तिनमें दक्षिण कोसल देसा , जहँ हरि ओतु
                                           केसरी वेसा
   तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन , पुण्यभूमि सुरमुनि
                                            मन भावन
   रत्नपुरी तिनमें है नायक , कासी सम सब विधि
                                           सुख दायक

        रत्नपुर या छत्तीसगढ़ राज्य मराठा युग के पूर्व एक सशक्त और संगठित राज्य था। सन् 1490 के लगभग रत्नपुर के राजा बहरसाय ने सैन्य सेवा के एवज में आदिवासी नेता बिसई ठाकुर विंझवार को सोना खान की जमींदारी प्रदान की थी। जो 1818 में तृतीय मराठायुद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों के प्रशासनिक नियंत्रण में आ गया । छत्तीसगढ राज्य के जनसंपर्क विभाग द्वारा 2001 में प्रकाशित बुलेटिन के अनुसार “ सोना खान का लोकप्रिय जमींदार रामराय बहुत साहसी और शक्तिशाली था , छत्तीसगढ़ के सूबेदार की अपेक्षा राम राय का आदेश अधिक माना जाता था , यह बात अंग्रेज शासकों को रास नहीं आई । वे छल ओर बल से किसी भी प्रकार उसे अपने नियंत्रण में रखना चाहते थे । वर्ष 1819 में कैप्टन मेक्सन की सेना से पराजित होने पर सोनाखान जमींदारी की शक्ति 300 ग्रामों से घटाकर लगभग 50 गांवों तक सीमित कर दी गई । “

       जमींदार रामराय की मृत्योपरांत उसका पैंतीस वर्षीय पुत्र बड़ा ही धर्मप्राण और प्रजा वत्सल था । सोनाखान से लगी पहाड़ी पर वह अपने ग्राम देवता की नियमित पूजा करता था । उसने जनता के हित में कई बड़े – बड़े कार्य किए जिसमें राजा सागर , रानी सागर और नन्द सागर जैसे बड़े जलाशय आज भी उसके गौरव गाथा के साक्ष्य हैं । 7 मार्च 1854 को ब्रिटिश शासन में नागपुर को विलय करने के बाद छत्तीसगढ़ के प्रशासन के लिए एक डिप्टी कमिश्नर के रूप में कैप्टन इलियट को पदस्थ किया गया , जिसका मुख्यालय रायपुर था । सन् 1856 में छत्तीसगढ़ में वस्तर भी शामिल था । प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ रायपुर , धमतरी , बिलासपुर आदि तीन तहसीलों में बांट दिया गया ।

         सन् 56 का अकाल छत्तीसगढ़ में आज भी अनेकहावतों और जन – कथाओं का जन्मदाता बन गया । इस भीषण अकाल में लोग कंद मूल के भी खत्म हो जाने पर पत्तियाँ खाने को विवश हो गये । भूखमरी और पानी के अभाव में बड़ी जन – पशुधन की हानि हो रही थी । वीर नारायण इस भीषण जन संहार से अत्यधिक भावुक हो गए , जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है वे प्रजा – वत्सल शासक थे । एक दिन उनकी रैय्यत बड़ी संख्या में सोनाखान में इकत्र हुई । तब उनका मकान बांस और मिट्टियों का था , प्रजा की सेवा में उनका स्वयं का खजाना तक खाली हो गया था , ऐसे समय नारायणसिंह के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोग करौंद गांव के माखन नामक एक व्यापारी के यहां जमा हुए जिसकी गोदाम में काफी अनाज भरा हुआ था , वीर नारायण सिंह ने गरीब वेबस किसानों के हित में खाने को अन्न और बोने को बीज मांगा , जिसे फसल आने पर बाढ़ी सहित लौटाने की बात कही गई थी , परन्तु व्यापारी बहुत गिडगिडाने पर भी नहीं पसीजा उल्टे अपने जमींदार को दुत्कार दिया , यह चोट स्वाभिमानी जमींदार नारायण सिंह के लिए असहनीय थी , उसने अपना खांड़ा निकाला और गोदाम का ताला तोड़कर अनाज भूखे किसानों में बांट दिया और इसकी विधिवत सकारण सूचना डिप्टी कमिश्नर को भेज दी गई । यह 29 अगस्त 1856 को घटना है । इलियट तो मौके की फिराक में था उसने व्यापारी की लिखित शिकायत पर नारायण सिंह के विरुद्ध कार्यवाही शुरू कर दी । पुलिस जब नारायण सिंह को गिरफ्तार करने गयी तो सोनाखान में सूचना मिली कि वे जगन्नाथ जी की तीर्थ यात्रा पर हैं । इलियट आग बबूला हो गया , फलस्वरूप नारायण सिंह को बीच रास्ते में ही संबलपुर में 24 अक्टूबर 1856 को गिरफ्तार कर लिया गया । एक छोटा सा मुकदमा चलाकर उन्हें डाका और हत्या के झूठे आरोप में रायपुर के जेल में बंद कर दिया गया । जनता इस घटना से भड़क उठी । नारायण सिंह दस महीने चार दिन तक जेल में बंद रहे , इसके बाद विद्रोही सैनिकों की मदद से दीवार में की गई सुरंग से वे भाग निकले ।

इधर देश में क्रांति की ज्वाल फूट पड़ी थी , झांसी की रानी दिल्ली के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर आदि के खूनी संघर्ष की बात मध्यभारत में भी धीरे – धीरे फैल रही थी । 15 अक्टूबर 1857 को जब गुरुसिंह और रामनाथ के नेतृत्व में , इधर के जमींदार सोहागपुर में जमा हुए तो अंग्रेजी सेना इन विद्रोहियों के दमन में उलझ गई , इधर सैनिकों के हृदय में देश प्रेम की भावना उमड़ – घुमड़ रही थी , उन्होंने नारायण सिंह को अपना नेता मानकर दिवाल में सुरंग बना दी और नारायण सिंह को कारागार से भागने में पूरी – पूरी मदद की खुफिया पुलिस से इसकी सूचना डिप्टी कमिश्नर को दूसरे दिन ही मिल गई । तब उसने तीसरी रेजीमेंट के कमांडर को जाँच का आदेश दे दिया । इस दौरान वीरनारायण सिंह के वकील के घर की तलाशी ली गई , परन्तु वहां लांस नायक शमशेर सिंह के नाम लिखा एक कागज के टुकडे के सिवाय कुछ न मिला । लेकिन दयाराम तथा कुछ अन्य कैदियों की मदद से इस बात की पुष्टि हो गई कि लांस नायक और नारायण सिंह के बीच संपर्क था । असिस्टेंट कमिश्नर स्मिथ ने शमशेर सिंह को कोर्टमार्शल के द्वारा दंडित करना चाहा , लेकिन साक्ष्य के अभाव में कमांडिंग ऑफिसर ने स्मिथ के आदेश का पालन नहीं किया इसकी भनक इलियट को लग गई और यह भी मालूम हो गई कि तीसरी रेजीमेंट के सैनिकों में विद्रोह की भावना भड़क रही है । उसके आवेदन को नागपुर से दिल्ली भेजा गया और गवर्नर जनरल के आदेश पर स्वीकृति मिलते ही उसे अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया ।

         नारायण सिंह अच्छी तरह जानते थे कि विद्रोह की सजा उन्हें मिलेगी ही अस्तु उन्होंने सोनाखान में आदिवासियों और जनता के सहयोग से पांच सौ हथियार बंद सैनिकों का गठन किया , रसद और अस्त्र आदि की व्यवस्था की और नाकेबंदी के लिए बांस और काठ की दीवारों से सोनाखान के रस्तों को सिलकर दिया गया ।

  विद्रोह की आग तो समूचे उत्तर प्रदेश से होकर मध्य देश में फैल रही थी , और छत्तीसगढ़ भी भड़क उठा अब सोनाखान के विद्रोह को दबाना अंग्रेज सरकार की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया । इलियट को नारायण सिंह के सैन्य संगठन शक्ति और जनता के आकोश का पता लग चुका था अस्तु इससे निपटने के लिए तैयारी में उसने बीस दिन लगा दिए । उसके आदेश पर असिस्टेंट कमिश्नर सिग , लेफ्टीनेंट नेपियर की सेना लेकर सोनाखान की ओर कूच किया , इसमें 53 पुलिस , 4 दफ़ेदार तथा एक जमींदार की सेना शामिल थी , यह 20 नवम्बर 1857 की घटना है । कुमुक खरौद थाने में पड़ाव डाला इसी बीच स्मिथ को एक घुडसवार ने वीरनारायण सिंह का जवाबी पत्र लाकर थमा दिया , जिसमें उसके स्वाभिमान और देश प्रेम की अटूट भावना अंकित श्री नारायण सिंह के नेतृत्व में आदिवासियों और जमींदार की मदद से अंग्रेजी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसका विवरण इस प्रकार है । लेफ्टिनेंट स्मिथ 20 नवम्बर 1857 को मय फौज के रायपुर से सोनारखान के लिए रवाना हुआ । किन्तु मार्ग दर्शक के गलत रास्ते पर ले जाने पर 21 नवम्बर 1857 की रात में उसे रायपुर से 70 मील दूर एक गांव में रुकना पड़ा वहां से सोना खान 35 मील दूर था। अगले दिन 18 मील चलकर करांदी गांव पहुंचने पर स्मिथ को ज्ञात हुआ किसोनाखान के रास्ते पर ऊंची दीवाल खडीकर नारायण सिंह ने रास्ता रोक दिया है तथा उसकी सेना निपटने को खड़ी है रात्रि में स्मिथ ने नारायण सिंह पर अचानक हमला करने की योजना बनाई अत : करौंदी के एक निवाशी वाला पुजारी की सहायता से एक अन्य रास्ते से सोनाखान के लिए स्मिथ रवाना हुआ । किन्तु अर्धरात्रि में नीतला गांव से सोनाखान के बीच 3 मील तक दुर्गम पहाड़ थे तथा स्मिथ द्वारा भेजे गये जासूस ने समाचार दिया कि घाट पर नारायण सिंह की सेना नाकेबंदी कर मोर्चा के लिए तैयार है । ” इसरो स्मिथ बेचन हो उठा ! ” तुरंत कंटगी के कामदार 16 बन्दूक धारियों सहित तथा वडगांव का जमींदर 25 सैनिकों सहित स्मिथ की सेवा में हाजिर हो गए । इसके बाद स्मिथ स्वयं घाट का मुआयना करने निकल पड़ा और उसने विषम परिस्थितियों का पता लगा लिया और पुनः नीम तल्ला वापस हो गया । बिलासपुर को लिखा गया , पचास सैनिकों की टुकड़ी तो नहीं पहुंची पर बिलाईगढ़ का जमींदार सैनिकों सहित वहां पहुंच गया जिन्हें स्मिथ ने घाटों पर तैनात कर दिया । जिससे नारायणसिंह को बाहर से किसी प्रकार की मदद न मिल सके ।

   उसके निवेदन पर डिप्टी कमिश्वर ने रायपुर से 100 सैनिक और भेजे । इसी बीच मंगल नाम के जासूस ने यह रहस्य बतलाया कि देवरी से सोनाखान जाने वाले रास्ते की नाकाबंदी अभी पूरी नहीं हुई है । साथ ही उसने यह भी बताया गया कि नारायण सिंह के पास 500 हथियारबंद सैनिक और 7 तोपें हैं । स्मिथ ने मोर्चा सम्हालते हुए घाटियों में 80 सैनिक और तैनात किये और 29 नवम्बर की सुबह नीमतल्ला से देवरी के रास्ते सोनाखान के लिए कूच कर दिया । 35 मील चलने के बाद रास्ता भटक जाने के कारण उसे संबलपुर राज्यान्तर्गत एक गांव में रुकना पड़ा , इसके कारण स्मिथ 30 नवम्बर को देवरी पहुंच सका जहां से सोनाखान मात्र 10 मील था । देवरी का जमींदर जो रिश्ते में नारायण सिंह का काका था , गद्दार निकला , उसने पुरानी दुश्मनी के चलते स्मिथ की हर प्रकार से सहायता की । एक दिसम्बर को स्मिथ 126 , सैनिकों सहित सोनाखान से मात्र 3 मील की दूरी पर पहुंचा इसकी भनक लगने में नारायण सिंह को देरी नहीं लगी तभी नारायण सिंह की सेना ने गोलियों की बौछार शुरुकर दी । स्मिथ धूर्त और चालाक था अस्तु वह कम से कम सैन्य हानि सहता हुआ और रास्ता काटकर सोनाखान पहुंचा जो सूना पड़ा था भविष्य की कल्पना करके नारायण सिंह ने अपने पुत्र गोविंद सिंह परिजनों और जनता को असवाव सहित बाहर भेज दिया था । इधर नारायण सिंह को बाहर से कोई सहायता नहीं मिली । वह चारों तरफ से घिर गया था । क्रोध में स्मिथ ने समूचा गांव आग की लपटों के हवाला करके पैशाचिक अट्हास करने लगा । निरंतर गोलावारी और संघर्ष से नारायण सिंह की मुट्ठी भर सेना घाटी में यत्र – तत्र विखर चुकी थी । अस्तु उन्होंने और खून – खरावा देखना पसंद नहीं किया और स्मिथ के आगे आत्म समर्पण कर दिया । 05 दिसम्बर को स्मिथ नारायण सिंह को हथकड़ी लगाकर डिप्टी कमिश्नर इलियट के हवाले कर दिया । एक छोटी सी अदालती कार्यवाही के बाद अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध बगावत करने के आरोप में नारायण सिंह को फांसी की सजा सुनादी गई ।

        10 दिसम्बर 1857 को वीर नारायण सिंह को रायपुर के एक प्रमुख चौराहे पर सरे आम तड़के सुबह फांसी दे दी गई । वह वलिदानी स्थान आज छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जयस्तंभ कहलाता है । प्रतिक्रिया स्वरूप देवरी के जमींदार का जिसके हिस्से सोनाखान भी हो गया था , नारायण सिंह के लड़के गोविन्द सिंह ने गलाकाटकर पिता का बदला ले लिया । इधर रायपुर के सैनिकों में विद्रोह की चिनगारी धधक रही थी । 18 जनवरी 1858 को रात में हनुमान सिंह के नेतृत्व में तीसरे रेजीमेंट के सैनिकों ने हल्ला बोल दिया । सेना ने छावनी में तोप- हथियार अपने कब्जे में कर लिया और हनुमान सिंह ने सार्जेंट मेजर सिलवेल का तलवार के एक ही वार से गला काट दिया । दुर्बल संगठन के कारण यह सैनिक विद्रोह भी कुचल दिया गया हनुमान सिंह तो किसी प्रकार छावनी से भाग निकलने में सफल हुए लेकिन 17 सैनिक गिरफ्त में आ गए । उन्हें भी सरे आम 22 जनवरी को फांसी दे दी गई । हनुमान सिंह पर जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए बड़ी राशि के पुरस्कार की घोषणा की गई , लेकिन सरकार अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हुई । अमर शहीदों के नाम इस प्रकार है –
गौज खान , अब्दुल हयात , मुलू , शिवनारायण , पन्नालाल मातादीन ठाकुर सिंह , अकबर हुसैन , बली दुबे , लवा सिंह , वुदलू , परमानंद , शोभालाल , दुर्गा प्रसाद , नजर मोहम्मद , शिव गोविंद और देवीदीन ।

     अमर शहीद वीर नारायण सिंह और इन विद्रोही सैनिकों के बलिदान ने सचमुच छत्तीसगढ़ का मुख उज्वल किया है , अन्यथा 57 के गदर के इतिहास में उसका नामोल्लेख तक नहीं होता , वसे भी नाममात्र इसका जिक्र हुआ है । इस कुर्बानी के अभाव में छत्तीसगढ़ की यह पवित्रधरती वीर प्रसूता कहलाने से वंचित हो जाती । खेद है अमर शहीदों की इस कुर्बानी पर किसी भी गद्य लेखक ने कलम नही चलाई । छत्तीसगढ़ के लाडले सपूत हरिठाकुर ने जरूर एक खंडकाव्य अमर शहीद वीर नारायण सिंह शीर्षक से तथा युगवारण लक्ष्मण मस्तुरिया ने सोनाखान की आगी शीर्षक से एक बैलेड की रचना की है , जिसका समुचित प्रचार – प्रसार नहीं हुआ । अब समय आ गया है इस महत्वपूर्ण विषय पर एक उपन्यास लिखा जावे ।
        यह ऐतिहासिक घटना है अस्तु उपन्यास लेखन के लिए काफी शोध की अपेक्षा है , जिससे तथ्यों का विना हानि पहुंचाते हुए , छत्तीसगढ़ के शौर्य , समृद्धि और संस्कृति की पुनर्रचना हो सके और यदि भारतीय ज्ञानपीठ ने यह अवसर सुलभ कराया तो निश्चित रूप से एक ऐसे उपन्यास का सृजन हो सकेगा जिसमें इतिहास काव्य और ललित निबंध तीनों का आनंद मिल सकेगा ।

Vishnu Narayan • Bollywood’s Patriotic Songs

कथा साहित्य