Raipur: रामधारी सिंह दिनकर: इन्होंने अपनी लेखनी से बढ़ाया राष्ट्रीयता का सम्मान

Raipur: रामधारी सिंह दिनकर: इन्होंने अपनी लेखनी से बढ़ाया राष्ट्रीयता का सम्मान

रायपुर। Chhattisgarh Raipur: “जब-जब किसी देश की राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे सहारा देता है। साहित्य का धर्म है कि वह समाज को सही दिशा की ओर ले जाए “- दिनकर जब काव्य सम्मेलन के बाद सीढ़ियों से उतरते वक्त अचानक पंडितजी जवाहर लाल नेहरू जी का पैर फिसला और वे गिरते, इससे पहले ही उन्होंने अपने दो कदम आगे चल रहे दिनकर के कंधे पर हाथ रख दिया। आभार व्यक्त करते हुए पंडित नेहरू ने कहा – दिनकरजी शुक्रिया, आज आपके कारण मैं हादसे का शिकार होते-होते बच गया। तब दिनकर ने कहा ” जब-जब किसी देश की राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे सहारा देता है।साहित्य का धर्म है कि वह समाज को सही दिशा की ओर ले जाए” यह पंक्ति हमेशा यह याद दिलाती है की साहित्य समाज का हृदय है ।साहित्य के बिना हम किसी सभ्य राष्ट्र या समाज की कल्पना नहीं कर सकते।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था “दिनकर जी हिंदी भाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।” हरिवंश राय बच्चन ने कहा था “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।” रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था “दिनकर जी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।” नामवर सिंह ने कहा है “दिनकर जी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।” प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि दिनकर जी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया। प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह के अनुसार ‘दिनकर जी साम्राज्य विरोधी और राष्ट्रिय कवि थे।’ दिनकर जी सच्चे जनवादी कवि थे। जनता के हृदय की बात बहुत मुखर हो कहते थे।

रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था। इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके। “देखने में देवता सदृश्य लगता हैबंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता हैजिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा होसमझो उसी ने हमें मारा है “1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था। यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है।”रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीरफिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर”वर्तमान में यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक दिव्या स्वप्न बन गई है।जब कोई तानाशाह होता है वह आलोचना या निंदा से डरता ही नही है वह उसे कुचलने के लिए पूरी सत्ता को झोंक देता है। जो लोग दिनकर से प्यार करते है वे हमेशा सत्ता से जनता के हक के लिए सवाल खड़ा करने से नहीं डरते , बल्कि उनसे सरकारें डरती है।1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया, लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाएं यहां- वहां प्रकाश में आईं।दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी। समय भले ही बदल गया हो लेकिन परिस्थितियां अभी भी वैसी ही हैं। दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को आज के बिहार राज्य में पड़ने वाले बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था। उनकी प्रसिद्ध रचनाएं उर्वशी, रश्मिरथी, रेणुका, संस्कृति के चार अध्याय, हुंकार, सामधेनी, नीम के पत्ते हैं। उनकी मृत्यु 24 अप्रैल 1974 को हुई थी।वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। ऐसा बहुत ही कम हिन्दी कविताओं में देखने को मिलता है। कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ को राष्ट्रकवि का दर्जा मिलता है मगर एक कवि राष्ट्रकवि भी हो और जनकवि, यह इज्जत बहुत ही कम कवियों को नसीब हो पाती है। रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं जिनकी कविताएं किसी अनपढ़ किसान को भी उतनी ही पसंद है जितनी कि उन पर रिसर्च करने वाले स्कॉलर को।दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी। समय भले ही बदल गया हो लेकिन परिस्थितियां अभी भी वैसी ही हैं। कुछ कविताएं -समर शेष है….ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊं किसको कोमल गान?तड़प रहा आंखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है।मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार।वह संसार जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण हैजहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण हैदेख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता हैमाँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता हैपूज रहा है जहां चकित हो जन-जन देख अकाजसात वर्ष हो गये राह में, अटका कहां स्वराज?अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर मेंसमर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगाऔर नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगासमर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगाजिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुंचाना होगाधारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैंगंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैंकह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगेअड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगेसमर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दोशिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दोपथरीली ऊंची जमीन है? तो उसको तोडेंगेसमतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगेसमर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीरखण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीरसमर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैंगांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैंसमर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी हैवृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी हैसमर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह कालविचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लालतिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें नासावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेनाबलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रेमंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रेसमर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याधजो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराधकलम, आज उनकी जय बोलजला अस्थियां बारी-बारीचिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी परलिए बिना गर्दन का मोलकलम, आज उनकी जय बोल।जो अगणित लघु दीप हमारेतूफानों में एक किनारे,जल-जलाकर बुझ गए किसी दिनमांगा नहीं स्नेह मुंह खोलकलम, आज उनकी जय बोल।पीकर जिनकी लाल शिखाएंउगल रही सौ लपट दिशाएं,जिनके सिंहनाद से सहमीधरती रही अभी तक डोलकलम, आज उनकी जय बोल।अंधा चकाचौंध का माराक्या जाने इतिहास बेचारा,साखी हैं उनकी महिमा केसूर्य चन्द्र भूगोल खगोलकलम, आज उनकी जय बोल।हमारे कृषकजेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं हैछूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं हैमुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं हैवसन कहां? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं हैबैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैंबंधी जीभ, आंखें विषम गम खा शायद आंसू पीते हैंपर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आंसू पीनाचूस-चूस सूखा स्तन मां का, सो जाता रो-विलप नगीनाविवश देखती मां आंचल से नन्ही तड़प उड़ जातीअपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छातीकब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती हैदूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती हैदूध-दूध और वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहां हैदूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहां हैंदूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना देदूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना देदूध-दूध दुनिया सोती है लाऊं दूध कहां किस घर सेदूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूंदें टपका अम्बर सेहटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैंदूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।3. भारत का यह रेशमी नगरभारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है?क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है।पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं।धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं।जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।सम्मानदिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।मरणोपरान्त सम्मान30 सितम्बर 1987 को उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया।

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