- स्व.कौशल प्रसाद दुबे
महा प्रलय का तन्तु वाय
उगल कर तिमिर जाल
बैठा आप भयभीत प्राय
दोलित ग्रह – नखत – यूथ
फंस रहे ज्यों दीन कीट
अपने अस्तित्व की रक्षा में
भाग रहे सब दूर दूर
अपने ही पथ पर टकराते
होते क्षण में चूर चूर
उस महा विखंडन के क्षण में
घर्षण और टकराहट में
कितनी प्रलय मची होगी
कौन कह सकता कितनी हलचल
मची होगी , सागर तट में
आकर्षण और विकर्षण का
चला कब तक दुर्धर्ष खेल
वैद्युत आवेश से भरे बादल
कठिन कुलिश थे रहे ठेल
स्खलित तरंगों की रेल पेल
महाशून्य का क्रोधित अजगर ,.
पीकर उनचास पवन प्रलयंकर
उगल रहा था गरल- पयोध
पटक कर पूंछ कंपाता अंतरिक्ष
यह किसका है मनो विनोद ?
बट पत्र शायी परम शिशु का ??
ताण्डव का यह कौतुक विलास
उसके ही काल जयी अधरों पर
शोभित , यह निलय सुहास
पदांगुष्ठ मुख में धारे
उसकी अमृतमय चटकारें
काल भैरवी की चित्कारें
या शेष की रुद्र – फुत्कारें
आलोड़ित होते कोटि सिन्धु
फेंकता पैर जब हुमक कर
राका निशा में उठती गिरती
ज्यों उत्तेजित भीम लहर
यह भीषण रव उसकी किलक
अरे, यह विप्लव उसकी पुलक
काल रात्रि के अलक राशि सा
फैला संघनित अंधकार
जिसमें फंस फंस जाते कतिपय
सूर्य – चन्द्र जुगुनुवों की तरह
अपने अति सीमित प्रकाश से
कुछ पग आलोकित कर जाते
फिर विलीन हो जाते तम में
दिखला कर अपनी क्षुद्र सत्ता
विराट तम के समक्ष अपनी इयत्ता
कितने यम कितने ही भैरव
कितने भूतनाथ सुर दानव
कितनी शक्तियाँ होकर अन्धी
उद्भ्रान्त भटकती थी निरुपाय
कब निगलेगा फिर तिमिर जाल
वह महा प्रलय का तन्तु वाय
सो गया खेलकर वह शिशु
विश्रांत, उसी का लीला वपु
सन्नाटा था घोर चदुर्दिक
आतंक झल रहा था पंखा
कुछ कुछ चलती थी झंझा
शान्त हो चली थी हलचल
नींद में कहीं पड़े न खलल
कितने युग हो गए व्यतीत
लोरियाँ गाती रही मात
वह आदि शक्ति , चिन्तातुर
कब होगा फिर नवल प्रभात
कल्पों की पूंजीभूत वेदना
कबसे टीस रहे थे बनकर
सीने में कोई घाव पुराना
वहीं अचानक वत्सलता का
मानों फूट पड़ा एक झरना ,
उठो लाल ! सो चुके बहुत
बहुत खेला, बहुत किया उत्पात
इसी से आयी गहरी नींद
उठो – कर बद्ध खड़ा प्रभात
खोलो आखें खोलो प्रकाश बन्ध
तेरे सब लीला सहचर –
तुम्हें जगाते शत् सहस्त्र स्वर
शत् सहस्त्र लहरों के मुख से
स्रोत गा रहा है सागर
जागो जागो हे ब्रह्म परात्पर
विगत हुई प्रलय निशा, पर
यह कैसी सुषुप्ति , लीलाधर !
तुम न खोलोगे दृग , तब
कैसे आलोकित होगा दिनकर
ओंकार गुज्जरित ब्रह्मंड़ विवर –
तुम जागो जागो हे त्रैलोकेश्वर ….
जागा वह आदि रहस्य सा
या स्वयं हुआ उद्घाटित सहसा ?
कि फैल गया सम्पूर्ण ब्रह्मांड में
प्राणदायक आलोक बनकर
सूर्य चंद्र तारे सौर यूथ –
सब चल पड़ें यात्रा पथ- पर
बह चला समीर फूटे तृणांकुर
पृथ्वी हो गई सजीव संकुल
यह परिवर्तन का आवर्तन
उसी विराट् का माया – नर्तन
सृजन की इच्छा बन मुस्कान
दौड़ गई किरण अम्लान
दिब्य आदित्य ऊर्ध्व लोक
सब हो गए विगत शोक
ओ अनादि की स्मिति रेखा
किरण परी । न करो अनदेखा
कि विश्व हो रहा है विमुग्ध
अभी कहाँ संभल पाया है
होने दो कुछ तो प्रबुद्ध !
विभ्रम में पड़ गए विरंचि
देखो , करांगुलियां रुकी हैं
चूक रहे क्षण सृजन के
चिन्मयी पलकें झुकी हैं
ओ मायाविनी, प्रलय रात्रि में
तू जिसके चरण दबाती थी
जिसके बल पर तू फूल रही
उथल पुथल मचवा दी थी
अब तू जिसके संकेतो पर
लास्य नृत्य करती पगली
अखिल विश्व में फैल रही
तेरी गतिमय व्यञ्जना रुपहली
क्या जड़ क्या चेतन सब में
क्या जल क्या तुहिन कणों में
तेरी प्रकट अप्रकट छाया है
तूने ही सबको भरमाया है
तेरे अरुण – अधर – धनु से
जो छूट पड़ा मुस्कान – तीर
कौन अचल रह सका ‘धीर’
लक्ष्य भेद कर विश्व उर
दे जाती कितनी मधुर पीर
जीवन का यह प्रत्याकर्षण
इतना स्पृहणीय बन गया आज
अरे , तेरे अप्रतिहत नयनों से
छूटा भुवन मोहिनी ! नाराच
प्राणों में जो जगा कौतूहल
उसका रहस्य बता दो न
जीवन की सुखद भ्रान्ति बनीं
वह मंगल- अभिशाप तुम्ही हो न?
‘
आह ! जगाया तुमने आदिपुरुष को
अपने कोमल पदाघात से
रचना हुई स्वयं विकस्वरित
तुम्हारे ही नुपुर नाद से
ओ माया रश्मि ! धन्यवाद
जगाया तुमने अखिल विश्व के
महाप्राण नायक को ( सृष्टि के अवतंस को )
उस महा रचनाकार की कृति को –
तुमने ही किया मुखरित , मधुरिम
अपने पर विन्यास से
गूंथ गई सुमन वीथिका
तरु – लताओं के मृदु गात में
स्वर्ग और भूतल में पावन
मंजरित हुआ नन्दन वन
झुक गई डालियाँ पारिजात से
भर दी एक विचित्र कुहुक
काली कोयल के कण्ठों में
भर दिए पराग – कण चमकीले
नव विकसित सुमन – कोषों में
झंकृत हो गई दिव्य वीणा
सहसा फूट पड़े सप्तक स्वर
तेरे स्नेह का ज्योति निर्झर
खुल गए कर्ण पुट दिग्वधुवों के
उड़ा उड़ा देती मेघाम्बर
तेरे चरणों की गति लय
कोमल पद- तल परिश्रान्ति हरने
देखो बहने लगा मलय
ओ विश्व की मधुर पीड़ा ! .
स्नेह मयि , नव वय की ब्रीड़ा !!
तुमने किया कटाक्ष अमोघ
विटप कुसुम सा वृन्त्यच्युत होकर
गिर पड़ा मैं सुध बुध खोकर
स्वप्न सागर के तट पर
श्रुति पेशल ध्वनि , नुपुर – स्वर
दिव्य स्वरारोह दिक् दिगन्त पर
वीणा की मधुर तम झंकृति
वाणी के श्री मुख से निसृत
सप्तक स्वर स्पंदन के ताल पर ,
तुरीयातीत आत्म विस्मृति में
देखा मैंने सम्यक भू-मंडल को
एक अद्भुत आलोक से पूरित
और आलोक लहर में दोलित
आत्यंतिक ज्योतिर्मय मंडल
जिसके भीतर एक दिव्य पुरुष
जो बैठा था – पूर्ण विकसित –
चिन्मयी अरुणाभा मन्डित-
कमल फूल के भीतर विरंचि !
हाँ , वहीं सृष्टि का अधिष्ठाता
हम सबका भाग्य विधाता –
किन्तु यह क्या रक्त सा
कमल पंखुडियों से रिसता
जैसे अभी अभी शिशु को
जन्म दी हो कोई माता . …
राग मयी सृष्टि का कहाँ मूल ?
कुछ भी समझ में नहीं आता
छोर रहित , अनन्त लम्बी नाल
यह बताती- कोई है अवश्य
लिखा है जिसने विरंचि – भाल
खोजो उत्स छानों कीचड़
जहां से निकला है कमल
हजारों टन पिच ब्लेन्ड का
अवश्य होगा कोई बिन्दु
मूल रेडियो एक्टिव तत्व
छान मारों कीचड़ , अरे बनो क्यूरी
मिलेगा प्रकाश स्रोत मूल सर्जक…..
. युग बीते हुआ कल्पान्त
आह , मिली नहीं कोई थाह
नेति नेति अनादि अनन्त
वयोवृद्ध ब्रह्मां , चिर नवजात
ऐसे ही बूढ़े रहे जन्म जाता
रक्त रंजित गर्भ- फूल जल जात
अब भी वैसा नव्य गात
यूरेका यूरेका ! वह रहे शेष नाग
सगुंजलक , ज्योति पुग्ञ रेडियम नेत्र
वृहत् फण, मिल गया वह उत्स
यही है – यही है वह मूल
जहाँ से निकला था वह फूल
जहां नित्य होती अमृत …वर्षा
अजश्र प्रवहामान नभ गंगा
टहल रहे कोटि कोटि ब्रह्मांड
धूलि कण से उड़ते, बनते पंक
यही है विरंचि का जनक
अत्यंत ज्योतिष्मान चिर आयुष्मान
त्रिगुण प्रभामण्डल , घूर्णित दिग्मंडल
कौन ? कौन वह अधलेटा ???
दिव्य पुरुष वह किसका बेटा
बिष्णु ! अरे वही लक्ष्मी पति
कोटिशः कामदेव – लावण्य लजाता
माया पति, परात्पर, अजन्मा
ब्रह्मा का वह भाग्य विधाता
जगदाधार हम सबका त्राता
पद्मनाम , सद्य : प्रसूत माता ?
ओह ! अन्तर्चक्षु !! महादर्शनेच्छु!!!
बढ़ा बढ़ा अपनी दर्शन क्षमता
लौट आ लौट आ, मेरी दिव्यदृष्टि
जी उठ , जी उठ , – अलौकिक दृश्य
देख वह नित्य सृजन – नृत्य –
वो देख ! दृष्टि पराश के अंत में
नाच रहें हैं रस – नटराज
सद्य शिव, आशुतोष , उठे हाथ
लसित ताण्डवी मुद्रा में अकस्मात
घनघना उठा गगन – दिव्य निनाद
झरते नभ प्रसून अविराम – वाह !!
सृजन- प्रलय , प्रलय सृजन, बारी बारी
क्या करते हो (भूतनाथ)त्रिपुरारी ?
जन्म – मरण के बीच सन्तुलन
जो बना हुआ है अखिल विश्व में
वह क्या तेरे ही कारण ?-
जुगुनू को यह भ्रम है
जो फैला है प्रकाश आसपास
वह मात्र उसी के दम पर
बिजली अलापती यहीं राग
सूरज कहता है – जीवन की आग
मैं हूँ – मैं हूँ – वह महा भाग
योग माया सभेद विहंसती है
वह यों ही हंसती रहती है
सृष्टि चल रही है – चल रही है
गुत्थियाँ और भी उलझ रही है
प्रस्तुति:- बसन्त राघव, रायगढ़, छत्तीसगढ़, मो.नं. 8319939396
कमायनी जैसी शिल्प, गजानन माधव मुक्तिबोध जैसी प्राजंल भाषा, निश्चय ही इसे हम हिंदी साहित्य की उच्च कोटि की कविता में शुमार कर सकते हैं। इनकी प्रकाशित कृतियाँ 1. अहिल्या (खण्ड काव्य)2. मीरा (खंड काव्य)3 .दीप्ति स्मृति: (शोक गीत)