An Another page of Kashmir file: (जाहिद फारुकी/ हिमांशु शर्मा)। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और इंसान चाहे किसी मजहब का हो, किसी धर्म की इबादत करे, वह इंसान ही होता। कश्मीर में वह एक दौर था जहां एक और हैवान- दहशतगर्द थे और दूसरी तरफ थे इंसान। दहशतगर्दी ने भले किसी एक मजहब का चोला पहन रखा हो, लेकिन दूसरी तरफ खड़े इंसान वह थे जो वास्तव में मजहबी थे, जो सच्चे दिल से इबादत करते थे और एक दूसरे की हिफाजत करते थे। उस गुलिस्तान में कोई भी गैर नहीं था।
पहले पहल यह मोहल्ला और ऐसे कई मोहल्ले घाटी में फुलते फलते थे। मंदिर की घंटियां गूंजती थीं और अजान भी सुनाई पड़ती थी। किसी के मन में कोई मजहबी बैर नहीं था। फिर अचानक दहशतगर्दी आई। इन शैतान दहशतगर्दों ने एक मजहब का चोला पहन रखा था।

हम दोस्त थे। भले गैर मजहबी, लेकिन हमारे रिश्ते खून से भी गहरे थे। जब शैतान ने अपना आतंक फैलाया तो उसकी आग में सब कुछ झुलसने लगा। दोस्त- दोस्त को बचाने के लिए आगे नहीं आ पाता। विवश हो जाता है उन शैतानों के आगे। उसे परवाह है अपने और अपने परिवार की। अपने बूढ़े मां बाप, अपने बच्चों, बीवी और अपनी बहन की। दोस्ती के इस खून से भी गहरे रिश्ते को वह ढाढस बंधाता है। दोस्त की आंखों में देख कर उसे अपने हालात और मजबूरी बिना कहे समझाता है। फिर भी उसकी हर हाल में मदद करने की कसम खाता है। यह दोस्ती धर्म नहीं देखती, यह मजहबी नहीं है, सच्ची दोस्ती है जिसे लोग खुदा की सच्ची इबादत भी कहते हैं।
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ तो कहानी का सिर्फ एक पन्ना था। उसी फाइल के पन्ने से जुड़ा एक शार्ट इंटरव्यू वीडियो देखिए, जिसमें आपको कश्मीर फाइल के दूसरे पन्ने पर लिखी एक और कहानी नजर आएगी। जिन कम दिमाग के लोगों को ‘द कश्मीर फाइल’ फिल्म हजम नहीं हो रही है और वह हिंदू- मुस्लिम दंगे की आशंका जैसी बातें करते हैं या फिर वे लोग जो यह फिल्म देखकर हुड़दंगियों की तरह बदला- बदला के नारे लगाने लगते हैं, ऐसे लोगों को फाइल के दूसरे पन्ने भी उलट कर देखना होगा।
आतंकवाद की पीड़ा और विस्थापन का दर्द किसी एक जाति या समुदाय के लिए अकेला नहीं था। लोग एक- दूसरे से भावनात्मक रिश्ते से बंधे हुए थे। जो छोड़ कर गए, उनके जाने का दुख और दर्द उनके उन दोस्तों को पिछले 31 साल से पीड़ा दे रहा है और वह आज भी अपने बचपन और जवानी के उस दौर को याद करके फफक- फफक कर रोते हैं जब सभी दोस्त बिना किसी आतंकी डर के घाटी की खुली वादियों में हंसा खेला करते थे।
विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म में फाइल के एक पन्ने पर लिखी कहानी को पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ बयां किया है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि कश्मीरी पंडितों के साथ- साथ कश्मीर में रह रहे कई और हिंदुओं व सिखों को भी पलायन करना पड़ा था। यह दर्द बहुत गहरा है और 31 सालों से इस पर कोई दवा नहीं लगी थी। जब फिल्म बनाकर मरहम लगाने की कोशिश हुई तो कुछ लोगों की टीसें भी निकलना स्वाभाविक है। विस्थापन की पीड़ा अकेले किसी एक समुदाय की नहीं थी। उनके लिए भी यह बेहद पीड़ादायक था जो सच्चे दिल से अपने हिंदू पड़ोसियों को अपने परिवार जैसा मानते थे। इस दर्द को समझने के लिए भावनात्मक रूप से बेहद प्रखर और मजबूत होना होगा।
👀यह शार्ट इंटरव्यू वीडियो उन सभी लोगों को देखना चाहिए जो वास्तव में कश्मीरी पंडितों के दर्द को अपने दिल में महसूस करते हैं। जो वास्तव में सच्चे इंसान हैं और सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करते हैं।👀